आज सुनने को व्यथा सब…
मैं करूँ आह्वान तेरा
प्राण में निजता भरूँ प्रिय!
युग -युगों तक साथ चलकर,
पल्लवित उर को करूँ प्रिय!
दग्ध हृदया!धीर धर कर
तोड़ दो मिथ्या प्रथा सब….
दृश्य इक तेरे सिवा सब,
हैं निरर्थक प्राण दाहक ।
व्यर्थ सब संवाद जग के ,
क्लेश देते शूल वाहक ।
पीर तनया !छोड़ भी दो ,
दंश लेना अब वृथा सब–
आज सुनने को व्यथा सब ।
छीनकर अलिपुंज से प्रिय!
अर्क तेरे तन मलूं मैं,
ओस की कणिका धवल ले,
धूल धूसित पग धुलूँ मैं,
अश्रु निलया!अब न बरसो
याद करके निज कथा सब..
आज सुनने को व्यथा सब ।
आज नीरव रात्रि में प्रिय !
खोल दूँ उर कक्ष अपना ।
आँख मूदूं माथ रख मैं,
पास रख आ ! वक्ष अपना ।
छोड़ इक तू और मैं को..
मेट दो जग के तथा सब ।
आज सुनने को व्यथा सब ।
– अनुराधा पांडेय , द्वारिका , दिल्ली