दुनिया की सारी इमारतें सब श्रम कौशल की माया है ।
बजरी पत्थर को ढो ढो कर टूटी श्रमिक की काया है ।।
सदियों से सुनते आए हैं नारे इसके कल्याण हेतु ।
परिणाम नहीं देखा मैंने बन पाए जो निर्वाण सेतु ।।
हाथों में छाले हैं जिसके कांधे ,पैरों पर हैं निशान ,
महलों को जिसने खड़ा किया इक रात नहीं सो पाया है ।।1
पूरे दिन पत्थर तोड़ तोड़ अपनी किस्मत धुनता रहता ।
रूखी सूखी दो रोटी खा कोरे सपने बुनता रहता ।।
मंदिर मस्जिद का निर्माता सड़कों का भाग्य विधाता है ,
जो पेड़ लगाए हैं उसने क्या भोगी उनकी छाया है ।।2
अंतड़ियां भूखी सिकुड़ रहीं थोड़ी मिलती मजदूरी है ।
गर्मी सर्दी के मौसम से लड़ना उसकी मजबूरी है ।।
वो पत्थर का भगवान कहीं मंदिर में बैठा देख रहा ,
छैनी ने जिसे तराशा है पत्थर को देव बनाया है ।।3
सदियां बीती युग गुजर गए मजदूर वहीं का वहीं पड़ा ।
अधनंगे बीबी बच्चे है अधनंगा खुद भी वहीं खड़ा ।।
हलधर” यह प्रश्न पूंछता है सत्ता के ठेकेदारों से ,
क्या कोई परियोजन एसा जिसमें कल्याण समाया है ?4
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून