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कविता – जसवीर सिंह हलधर

दुनिया की सारी इमारतें सब श्रम कौशल की माया है ।

बजरी पत्थर को ढो ढो कर टूटी श्रमिक की काया है ।।

 

सदियों से सुनते आए हैं नारे इसके कल्याण हेतु ।

परिणाम नहीं देखा मैंने बन पाए जो निर्वाण सेतु ।।

हाथों में छाले हैं जिसके कांधे ,पैरों पर हैं निशान ,

महलों को जिसने खड़ा किया इक रात नहीं सो पाया है ।।1

 

पूरे दिन पत्थर तोड़ तोड़ अपनी किस्मत धुनता रहता ।

रूखी  सूखी  दो  रोटी  खा  कोरे  सपने  बुनता रहता ।।

मंदिर मस्जिद का निर्माता सड़कों का भाग्य विधाता है ,

जो  पेड़  लगाए  हैं  उसने  क्या  भोगी  उनकी  छाया है ।।2

 

अंतड़ियां भूखी सिकुड़ रहीं थोड़ी मिलती मजदूरी है ।

गर्मी  सर्दी  के  मौसम से  लड़ना  उसकी  मजबूरी है ।।

वो पत्थर का भगवान कहीं मंदिर में बैठा देख रहा ,

छैनी ने जिसे तराशा है पत्थर को देव बनाया है ।।3

 

सदियां बीती युग गुजर गए मजदूर वहीं का वहीं पड़ा ।

अधनंगे बीबी  बच्चे  है अधनंगा  खुद  भी  वहीं खड़ा ।।

हलधर” यह  प्रश्न  पूंछता  है  सत्ता  के  ठेकेदारों से ,

क्या कोई परियोजन एसा जिसमें कल्याण समाया है ?4

– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

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