तन बोलो ! अपनी साँसों को,कैसे क्षण भर भी बिसराता ?
अभियोगी मेरे अधरों पर केवल नाम तुम्हारा आता….
जग कहता मुझको अपराधी ,
अपना प्राण बचाती जब-जब ।
बुरा-भला कह कर हँस देता ,
उर के घाव दिखाती जब-जब ।
कौन जगत में सिवा तुम्हारे,जो मेरी पीड़ा पी जाता ।
अभियोगी मेरे अधरों पर,केवल नाम तुम्हारा आता ।
आ जाती क्यों जगती मग में,
यों मिथ्या अधिकार जताने ?
मेरे मन की सीमाओं पर ,
शब्द झार झंखाड़ लगाने ?
जग क्योँ मेरी निजता को ही,चींख-चींख कर दोष बताता ?
अभियोगी मेरे अधरों पर,केवल नाम तुम्हारा आता।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली