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मै एक पिता हूँ- विनोद निराश

मै एक पिता हूँ,

कभी सुखी, कभी दु:खी रहता हूँ ,

कभी मजबूर, कभी अरमानो की जलती चिता हूँ।

मैं एक पिता हूँ।

 

मै घुटता हूँ, तड़पता हूँ ,

सोचता हूँ , पीसता हूँ

टूटता हूँ, कभी बिखरता हूँ ,

मैं एक पिता हूँ।

 

कभी खुल के हंस नहीं पाता हूँ ,

जी भर के रो नहीं पाता हूँ ,

हर वक्त परिवार की सोचता हूँ ,

मैं एक पिता हूँ।

 

सबको खुशियां बाँटता हूँ ,

खुद ख़ुशी को तरसता हूँ ,

अपने मन की कह नहीं पाता हूँ,

मैं एक पिता हूँ।

 

पाषाण सा सदा रहता हूँ,

कभी-कभी पिघलने को तरसता हूँ ,

कभी पल में मोम बन जाता हूँ ,

मैं एक पिता हूँ।

 

रिश्तो में कशमकश देखता हूँ ,

भला मरने की कब सोचता हूँ  ,

ज़िम्मेदारियों का अहसास करता हूँ ,

मैं एक पिता हूँ।

 

अपनी जरूरते अतीत में धकेल देता हूँ ,

खुद को रस्मों के कच्चे धागों से बाँध लेता हूँ ,

चाहकर भी उन्हें तोड़ नहीं पाता हूँ ,

मैं एक पिता हूँ।

 

किसी को नहीं समझा पाता हूँ ,

किसी को नहीं बता पाता हूँ ,

मैं रोज़ दर्द के दरिया से गुजरता हूँ ,

मैं एक पिता हूँ।

 

जब घर के आँगन को देखता हूँ,

अधूरे ख़्वाबों की ताबीर सोचता हूँ ,

निराश मन को यही समझाता हूँ,

मैं एक पिता हूँ।

= विनोद निराश , देहरादून

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