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ग़ज़ल – विनोद निराश

उसने कदम  मेरी तरफ बढाया था,

बदन मेरा थोड़ा सा कपकपाया था।

 

धीरे से छुआ जब  मरमरी हाथों से,

मासूम दिल मेरा बहुत घबराया था।

 

मैं सोचता रह गया उस मंज़र को,

जब तीर-ए-नज़र उसने चलाया था।

 

दो गाम साथ चले वो राहे-इश्क़ में,

कहने को जो हमारा हमसाया था।

 

इक बात रह गई जो कहनी है तुम्हे,

ये कह के उसने करीब बुलाया था।

 

अब न हो सकेगी मुलाकात हमारी,

कपकपाते होंठो से यही बताया था।

 

हो गई खता-ए-इश्क़ मुआफ करना,

इतना कह के रात भर रुलाया था।

 

करके मुहब्बत इक बेवफा से निराश,

आखिर फरेब के सिवा क्या पाया था।

– विनोद निराश , देहरादून

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