और गुण कुछ भी न मुझमें,
सत्य है यह, मानती हूँ ।
किन्तु इतना है सुनिश्चित, मैं तुम्हारे हेतु अर्पित ।
ज्ञात मुझको कुछ नहीं है,
जन्म मेरा किस निमित है?
बैठता मुझ पर न अब तक,
सृष्टि का कोई गणित है ।
एक तुमको छोड़ कर प्रिय !
वस्तु कोई है न इच्छित ।
किन्तु इतना है सुनिश्चित, मैं तुम्हारे हेतु अर्पित ।
लब्ध यदि तुमको नहीं है ,
विश्व की संपूर्ण समिधा ।
व्यर्थ वे तुमसे विलग यदि,
हैं जगत में कोटि सुविधा ।
जो तुम्हें क्षण दे न खुशियां,
वे भुवन के शाप गर्हित ।
किन्तु इतना है सुनिश्चित, मैं तुम्हारे हेतु अर्पित ।
— अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली