क्या फिर से वापस आएगी?
वो शिशिर माह की शाम सखे!
जब मिला निमंत्रण मिलने का
पग बिन सोचे उस ओर बढ़े ।
तब पलक पाँवड़े राहों में
तुम सतत बिछा थे मग्न खड़े
नैनों ने भर आह्लाद प्रिये !
तब जैसे चारों धाम लखे ।
वो शिशिर माह की शाम सखे!
क्या क्षण वे दुर्लभ फिर होंगे ।
मृदु चुंबन के परिरंभन के ।
क्या फिर से वे घेरे होंगे ,
बाहों के मृदु रति रंजन के ।
जब अधरों की तुमने मदिरा..
मेरे अधरों पर आन रखे ।
वो शिशिर माह की शाम सखे !
क्या फिर से प्रिय ! दिख पाएँगी ,
वो अमल धवल तन की थिरकन ।
वे नैनो का खुलना झँपना ,
वे साँसों की मधुरिम सिसकन ।
जब तुमसे मिलकर जीवन ने ,
वो अमिय चंदनी रास चखे ।
वो शिशिर माह की शाम सखे !
अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली