ये जो दिसम्बर होता है ,
ये बड़ा ही ला-जवाब होता है ,
ठंडी-ठंडी बयार लिए आता है,
शीतल समीर छोड़ जाता है।
जब भी इसकी याद आती है ,
गर्म रजाईयों की गर्माहट भाती है ,
कभी-कभी सर्द हवाओं का झौंका ,
पुरानी याद ताज़ा कर जाता है।
स्वेटर, जैकेट, मफलर इसमें लगता है प्यारा ,
मधु सा मीठा अहसास हो जाता है सारा ,
रेवड़ी, मूंगफली, गज़क और जलते अलाव,
ये दिसम्बर ही तो है जो साथ लाता है।
मेरे मुहल्ले की वो चाय की टपरी,
इलाइची, अदरक की खुश्बू,
गुलाबी धूप में खुलते गेसू सामने वाली छत पर,
लगे जैसे मौसमे-इश्क़ साथ लाता है।
कभी कॉलेज के लॉन की मीठी-मीठी धूप,
कभी कैंटीन में गुजरे पल, कभी बंक मारना,
कभी किताब में गुलाब भेजना, कभी किताब में खत मिलना।
तो कभी सर्द रात में देर तक किसी की याद करना भाता है।
कभी पुराने दोस्तों का साथ, कभी हाथ में किसी का हाथ,
सर्दी में भी गर्मी का अहसास,
ये जो दिसम्बर जाता है,
मेरे निराश मन को आज भी कुरेद जाता है।
– विनोद निराश , देहरादून