मानव मन में हरपल जागे, आशा औंर निराशा।
पागल मनवा भटके दौड़े, नूतन ले अभिलाषा।
बेचैनी में रहता हर पल, पग-पग जगे हताशा।
कैसे कोई जान छुड़ाये, करता रोज तमाशा।
चंचलता को रोकें कैसे , मन व्याकुल हो जाता।
आशा और निराशा घेरे, समझ नहीं कुछ आता।
भाव झकोरे, इच्छा तरसे, कैसा जीवन दाता।
सोंच न पायें क्या करना है, रटते रहें विधाता।
जीवन आशा पर इतराये, दुनिया से क्या नाता।
मौसम-मौसम रंग बदलता, हर्षित जग निर्माता।
सूरज, चंदा, छटा बिखेरे, फूल कली मन भाये।
माया का बाजार लगा है, अपना खेल दिखाये।
कैसे कोई मन को साधे, कोई तो बतलाता।
तड़पे तरसे पागल ये मन, आकुलता तड़पाता।
ज्ञानी ध्यानी कुछ तो बोलें, जीवन व्यर्थ न जाये।
ज्ञानदीप आलोकित कर दे, मानवता मुस्काये।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड