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ग़ज़ल – विनोद निराश

जिस दर पे मुश्किल पहरा था ,

दिल मेरा भी वहीँ  ठहरा था।

 

सुर्ख लब जाम-ए-मय हो जैसे,

मरमरी बदन वो इकहरा था।

 

दरे-यार पे गुजार आये ज़िंदगी,

बेशक नसीब में मेरे सहरा था।

 

निगाहे-कातिल तो बेक़सूर रही,

मुजरिम मासूम दिल ठहरा था।

 

न गवाह न दलील बस सजा,

क्या कानून अन्धा बहरा था।

 

वही बने मुंसिफ़ जिस नज़र में,

गुनाहे-इश्के-निराश गहरा था।

– विनोद निराश, देहरादून

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