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श्रेष्ठ व्यक्तित्व के निर्माण द्वारा सभ्य समाज की स्थापना – मुकेश मोदी

neerajtimescom – दाम्पत्य जीवन में शिशु की किलकारी के साथ सन्तान के रूप में नए सदस्य के आगमन का क्षण अत्यन्त ही सुखद और महत्वपूर्ण होता है जो परिवार की पूर्णता को प्रमाणित करने के साथ साथ उसकी श्रेष्ठ पालना का महत्वपूर्ण दायित्व भी माता पिता को सौंपता है ।

अक्सर अभिभावक अपनी सोच, समझ और बुद्धिमानी लगाए बिना भौतिकता पर प्रचलित तरीके अपनाकर अपनी सन्तान का पालन पोषण करते हैं। वे इसी भ्रम में रहते हैं कि उन्हें अपनी सन्तान का पालन पोषण करना अच्छी तरह से आता है। अनेक साधन सुविधाएं जुटाकर वे इस जिम्मेदारी को निभाने का प्रयास करते हैं, लेकिन मात्र इतना करने से ही आदर्श माता पिता का प्रमाण पत्र नहीं मिलता । बच्चों को अच्छे संस्कार देने, सभ्य बनाने और उनके आदर्श व्यक्तित्व के निर्माण का कर्तव्य भी माता पिता को निभाना होता है।

हम सभी चाहते हैं कि हमारे बच्चे समझदार, सभ्य, चरित्रवान और आज्ञाकारी होने चाहिए, लेकिन उनको ऐसा बनाने के लिए निभाई जाने वाली भूमिका से अभिभावक अनभिज्ञ ही रहते हैं। परिणामस्वरूप बच्चों का व्यक्तित्व सुसंस्कारों और सद्चरित्र से पूर्णतः पोषित नहीं हो पाता है। बच्चे कुछ अच्छी बुरी आदतें अपने माता पिता से सीख लेते हैं और बाकी अपने दोस्तों से और आसपास के वातावरण से सीखते हैं । बच्चों का चारित्रिक विकास हमारी इच्छा अनुरूप नहीं होने पर कभी हम अपने बच्चों को और कभी अपनी किस्मत को कोसने लगते हैं। यदि माता पिता का व्यक्तित्व ही आध्यात्मिक रूप से, सांस्कृतिक रूप से और चारित्रिक रूप से दोषपूर्ण है तो उनकी सन्तान का चरित्र कैसे श्रेष्ठ हो सकता है ? बच्चों को चरित्रवान बनाना बहुत बड़ी चुनौती इसलिए बन गई है क्योंकि माता पिता अपने बच्चों को जैसा बनाना चाहते हैं, उसी अनुरूप खुद को बदलना नहीं चाहते।

इस बात को एक कहानी के माध्यम से समझना आसान होगा कि एक व्यक्ति ट्रेन में यात्रा कर रहा था और उसके सामने एक आदमी अपने पुत्र के साथ बैठा था। आसपास और भी लोग और बच्चे बैठे थे जो अपना अपना मोबाइल चलाने में व्यस्त थे। उस यात्री को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सामने बैठे बच्चे हाथ में मोबाइल नहीं था बल्कि वह किसी किताब को पढ़ने में व्यस्त था। उसने सोचा कि आजकल हर बच्चा मोबाइल का आदी हो चुका है, फिर ये बच्चा इस आदत से क्यों बचा हुआ है? इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उस यात्री ने बच्चे के पिता से इसका कारण जानना चाहा तो उसे जवाब मिला कि बच्चेे सिर्फ अपने बड़ों की नकल करते हैं, मैं किताब पढ़ रहा हूं तो मेरा पुत्र भी किताब पढ़ रहा है। यदि मैं मोबाइल चलाऊंगा तो ये भी मोबाइल ही चलाएगा।

अक्सर अभिभावक अपना आत्म संशोधन किए बिना अपने बच्चों को सुधारना चाहते हैं, जो किसी भी सूरत में सम्भव नहीं । धुम्रपान करने वाला या सुरापान करने वाला व्यक्ति किसी को इन्हें छोड़ने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता । बच्चों के शारीरिक पोषण के साथ-साथ उनके मानसिक पोषण की जिम्मेदारी भी महत्वपूर्ण है ।

कभी कभी अभिभावकों के मन में अपने बच्चों के प्रति लगाव और उन पर अधिकार जताने की भावना प्रबल वेग से सक्रिय हो जाती है। इसलिए वे अपने सिद्धान्तों और विचारों के अनुरूप अपने बच्चों को ढ़ालने का प्रयास करते हैं । यही गलती उनको अपने बच्चों से कभी कभी वैचारिक रूप से दूर कर देती है ।

बच्चों के प्रति सबसे पहले आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखते हुए यही समझना आवश्यक है कि पिछले कर्मों का हिसाब किताब लेकर एक आत्मा सन्तान बनकर हमारे घर में आई है जो हमारे लिए सौभाग्य की बात है। सन्तान की शारीरिक पालना के साथ साथ उसे संसार में फैले हुए गलत और नकारात्मक वातावरण से बचाकर चरित्रवान बनाना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है ।

शैशव अवस्था में बच्चों को जिस प्रकार सर्दी गर्मी की उग्रता से बचाकर रखा जाता है, उसी प्रकार समाज में फैले हुए मनोप्रदूषण से भी उन्हें बचाना आवश्यक होता है । अक्सर इसी प्रयास में माता पिता अपने मन में बैठा हुआ डर बच्चों में स्थानान्तरित कर देते हैं । इसी भय की भावना को एक चलचित्र का प्रसिद्ध संवाद परिभाषित करता है जिसमें एक मां अपने बच्चे से कहती है कि ’’सो जा, नहीं तो गब्बर आ जाएगा ।’’ किसी भी संकट से डरने के बजाए सावधान रहना आवश्यक होता है । हर व्यक्ति के मन में किसी न किसी बात कोे लेकर भय रहता है जिसका बीजारोपण उसके माता पिता द्वारा ही अर्न्तचेतना में किया जाता है ।

कोई भी अच्छा संस्कार अपनाने के लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है, जिसका सबसे सरल उपाय है बच्चों के साथ मित्रता का व्यवहार करना। मित्रता का भाव बच्चों को अपने माता पिता के निकट लाने में और अपने मन की बात कहने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । पारिवारिक और सामाजिक गतिविधियों में बच्चों का सहयोग लेने, उन्हें जिम्मेदारी सौंपने से उनमें प्रत्येक कार्य को करने का आत्मविश्वास जागृत होता है, उन्हें अपने जीवन की अहमियत का ज्ञान होता है ।

बच्चों को मिलने वाली प्रत्येक सफलता पर उन्हें शाबासी और बधाई देना एक ऐसी मानसिक दवा है जो उन्हें सकारात्मक उर्जा से भरपूर करती है । यह विधि अपनाने से बच्चे अपने माता पिता से बातें छिपाना बंद कर देंगे और उनकी सभी गतिविधियों पर नजर रखना आसान हो जाएगा ।

आज सूचना एवं संचार माध्यमों से मनोप्रदूषण फैलाने वाली सामग्री प्रतिदिन हमें सेवन करने के लिए मिल रही है । इनके दुष्परिणाम समाचार पत्रों में पढ़ते हुए भी इनसे किनारा करना हमारे लिए कठिन सा हो गया है। ऐसी स्थिति में आने वाली पीढ़ी जो बाल्यवस्था से ही इनका शिकार हो रही है, उनका भविष्य क्या होगा ? यदि उनका भविष्य अस्पष्ट है तो सम्पूर्ण समाज का भविष्य भी अनिश्चित है ।

इसके लिए अभिभावको को चाहिए कि वे स्वयं को प्रकृति से जोड़ें । प्रकृति से निकटता और उसकी पालना करने से बच्चों को भी उसमें रुचि होने लगेगी । जीवन की बुनियादी जानकारी के लिए, उसका अनुभव करने के लिए प्रकृति से जुड़ना आवश्यक है । किस प्रकार एक बीज जमीन में जाकर अंकुरित होता है और दो दो पत्तियों से बढ़ते बढ़ते एक पौधे का रूप लेकर हमें फल और सब्जियां देता है । प्रकृति से जुड़कर ही बच्चे समझ पाएंगे कि जीवन का विकास त्याग, तपस्या और धैर्य पर निर्भर है ।

संसार में अनेक लोगों ने अपने जीवन की राह चुनी और उस पर सकारात्मक भाव से निर्भय होकर चलकर उन्होंने सफलता प्राप्त की । इसी प्रकार अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को अपनी समझ से जीवन की राह स्वयं चुनने की स्वतन्त्रता प्रदान करें । बच्चों में जिज्ञासु प्रवृत्ति का विकास अवश्य होना चाहिए ताकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आने वाली समस्याओं का वे सावधानीपूर्वक सामना कर सके ।

बच्चों के प्रति आत्मिक स्नेह रखने, संगठित रूप से उनके साथ विचारों का आदान प्रदान करने और पारिवारिक व सामाजिक चुनौतियों के बारे में उनकी राय लेने से उनकी वैचारिक क्षमता समृद्ध होती है और उनमें मनोबल का विकास होता है ।

जिस प्रकार एक खिलाड़ी योग्य प्रशिक्षक के संरक्षण व निर्देशन में अभ्यास करके अपनी प्रतिभा को निखारता है, उसी प्रकार जीवन रूपी खेल में हर व्यक्ति एक खिलाड़ी है और माता पिता उसके प्रशिक्षक है। बच्चों के श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण तभी सम्भव है जब माता पिता एक प्रशिक्षक के रूप में उसकी प्रत्येक गलती पर उसे सावधान करते हुए आत्म संशोधन हेतु प्रेरित करते हैं । इसके लिए बच्चों को मानसिक रूप से प्रसन्न, तनाव रहित, उमंग उत्साह से भरपूर रखना आवश्यक है ताकि वे सभी जिम्मेदारियों को सम्भालने के लिए तत्पर रहे। बच्चों में यह समझ भी विकसित करनी आवश्यक है कि उनके प्रत्येक विचार, बोल और कर्म का उनके निजी व्यक्तित्व पर और बाहरी वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ सकता है ।

कभी कभी बच्चों की गतिविधियों या आदतों का मुल्यांकन करते हुए अभिभावक यह भूल जाते हैं कि बच्चे भी उनकी प्रत्येक गतिविधि का गहराई से अवलोकन व मुल्यांकन कर रहे हैं । केवल यही महत्वपूर्ण नहीं होता कि हम अपने बच्चों को लेकर क्या अवधारणा रखते हैं बल्कि यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारे प्रति बच्चों के मन में क्या क्या प्रश्नमाला गूंथी जा रही है । इसलिए अपने बच्चों के दृष्टिकोण को समझना भी आवश्यक है कि उनका कोमल मन आखिर अपने अभिभावकों के प्रति क्या सोचता है । कहीं ऐसा न हो कि बच्चे अपने ही अभिभावकों की गलत आदतें गिनाना शुरू कर दें ।

अभिभावकों की वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों को बेहतर पालना देने के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध विरोधाभासी जानकारी मिलने के कारण अक्सर दुविधा में पड़ जाती है। परिणामस्वरूप अपने ही मन में बच्चों की पालना को लेकर अनजाना भय पनपने लगता है। बच्चों के श्रेष्ठ विकास के लिए हमारे स्वयं के भीतर ही इसकी विधि मौजूद है,जिसे केवल पहचानने की आवश्यकता है।

सबसे पहले तो खुद का अवलोकन कर यह प्रश्न स्वयं से ही पूछना होगा कि क्या मेरा वर्तमान व्यक्तित्व मेरे बच्चों को अथवा अन्य लोगों को प्रिय है। यदि कुछ अप्रियता हमें अपने ही व्यक्तित्व में नजर आती है तो उन्हें संशोधित करना हमारी जिम्मेदारी है। हमें ऐसी गलतियां करने से स्वयं को बचाना चाहिए जो प्रत्यक्ष रूप से नजर में आती है जिनका अनुसरण करना बच्चों के लिए सहज होता है।

अभिभावक बनने के पश्चात् अपनी दिनचर्या, जीवनशैली, विचार, व्यवहार और कर्म में कुछ स्थाई बदलाव लाने आवश्यक हो जाते हैं । माता पिता को आपसी सोच और समझ के आधार पर वे बदलाव सहज रूप से स्वीकार कर लेने चाहिए। स्वयं को सदा प्रसन्न, आत्मविश्वासी और हंसमुख रहना चाहिए ताकि उस वातावरण का बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता रहे ।

समय के साथ साथ भौतिक सुखों और इन्द्रिय जनित सुखों के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हमारे अपने आत्म संशोधन के साथ साथ बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में आध्यात्म का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। आध्यात्मिकता का महत्व और लाभ समझकर उसे जीवन में अपनाते रहना चाहिए जो मानसिक शान्ति और आन्तरिक तृप्ति का सुखद एहसास कराएगी ।

बच्चों के साथ साथ अभिभावकों को अपने मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल भी करनी चाहिए। किसी भी स्थिति में तनाव को अपने मन में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। जीवन में प्रत्येक सम्बन्ध का महत्व समझकर उसका सकारात्मक विचारों और भावनाओं से पोषण करना चाहिए। किसी विषय पर माता पिता को आपसी मतभेद उत्पन्न होने वाली सम्भावनाओं को पहचानकर उन्हें समाप्त करने के लिए सावधान रहना चाहिए। माता पिता का आपसी सामंजस्य, सद्भावना, विश्वास और विचारों की एकात्मकता बच्चे के सर्वांगीण विकास हेतु अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

अभिभावकों के लिए सन्तान की पालना करना जीवन पर्यन्त चलने वाली एक प्रकार की तपस्या है। इस दौरान अभिभावक अनेक चीजें अपने बच्चों को सिखाते हैं, अनेक चीजें बच्चों से सीखते हैं और जीवन पर्यन्त दोनों को अनेकानेक अनुभव होते हैं।

जिस प्रकार पर्वतारोहण करना या समुद्री यात्रा करना रोमांचक अनुभव देता है, उसी प्रकार अपने बच्चों के श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण भी किसी रोमांच से कम नहीं है । इसलिए आध्यात्मिक बल पर अपना व्यक्तित्व संशोधित करते हुए अपने बच्चों के श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण कर सभ्य समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का आनन्द उठाएं ।  – मुकेश कुमार मोदी, बीकानेर, राजस्थान, मोबाइल नम्बर 9460641092

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