बागों के माली रखवाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।
फूलों पर कांटों के ताले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।
निर्धन को रोटी के लाले , अब से नहीं ,जमाने से हैं ।
हलधर के हाथों में छाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।
आजादी की सुनो कहानी , आँखें भर लाएंगी पानी ।
सरहद पर शोणित के नाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।
सांची बात महाभारत की , बुरी लगेगी सुनने वालों ।
संसद में जीजा औ साले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।
धरती धूप हवा हरियाली , पैसे वालो ने चर डाली ।
बेवस की आंखों में जाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।
सत्य तथ्य वाली कविता पर ,चाटुकारिता दिखती भारी।
कवियों के छंदों में भाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।
भूख गरीबी चिड़ा रहीं हैं , संसद में नकली हंगामा ।
खादी में कुछ नेता काले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।
तापमान बढ़ता धरती का ,रोज इसारे करता ” हलधर” ।
मौसम के ये रूप निराले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।
– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून