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हिंदी ग़ज़ल – जसवीर सिंह हलधर

बागों के माली रखवाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।

फूलों पर कांटों के ताले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।

 

निर्धन को रोटी के लाले , अब से नहीं ,जमाने से हैं ।

हलधर के हाथों में छाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।

 

आजादी की सुनो कहानी , आँखें भर लाएंगी पानी ।

सरहद पर शोणित के नाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।

 

सांची बात महाभारत की , बुरी लगेगी सुनने वालों ।

संसद में जीजा औ साले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।

 

धरती धूप हवा हरियाली , पैसे वालो ने चर डाली ।

बेवस की आंखों में जाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।

 

सत्य तथ्य वाली कविता पर ,चाटुकारिता दिखती भारी।

कवियों के छंदों में भाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।

 

भूख गरीबी चिड़ा रहीं हैं , संसद में नकली हंगामा ।

खादी में कुछ नेता काले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।

 

तापमान बढ़ता धरती का ,रोज इसारे करता ” हलधर” ।

मौसम के ये रूप निराले , अब से नहीं जमाने से हैं ।।

– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून

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