मुझको तेरा पागल कहना,अच्छा लगता है ।
ऐसे तो होंगी जग भर में,
कितनों के हित कितनी राहें।
मुझको पर पावन लगती है,
केवल सजना ! तेरी बाँहें ।
तेरे घर का बस पथ गहना,अच्छा लगता है ।
मुझको तेरा पागल कहना,अच्छा लगता है ।
धूप छाँव आतप आँधी सब,
लगते मुझको खेल -खिलौने ।
जीवन में तेरे बिन मुझको ,
कभी न भाते नर्म बिछौने।
तेरे हित शत-शत व्रण सहना,अच्छा लगता है ।
मुझको तेरा पागल कहना,अच्छा लगता है ।
तेरी एक झलक पाने को ,
रहती हूँ मैं नैन बिछाए ।
बैठे-बैठे तेरी सुधियाँ,
दृग में बिछल-बिछल कर आए ।
तेरी यादों में रत रहना ,अच्छा लगता है ।
मुझको तेरा पागल कहना,अच्छा लगता है ।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली