निभाना ही नहीं था तो कदम तुम ने बढ़ाया क्यूँ,
गमे-दिल में चिरागे-इश्क़ मेरे फिर जलाया क्यूँ।
गुजर तो यूँ रहे थे दश्त-ओ-सहरा सफर में हम,
जहर फिर बेवफाई का मेरे दिल में बहाया क्यूँ।
जमाने ने दिए थे जो सितम कब खाक हो पाये,
सितमगर फिर दहन में धन मिरे तूने लगाया क्यूँ।
जिधर मेरी निगाहें देखती है तू नजर आता,
कभी जो मिल ना पाये वो हसीं सपना दिखाया क्यूँ।
लकीरों में लिखे थे गम कहाँ मिलती खुशी,
झरना मुकद्दर की गरीबी में शहाना ये सजाया क्यूँ।
– झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड