भाव पिता के मन के अब तक, बोलो कौन समझ पाया।
प्रेम हिलोरें मारे हरदम, अंतस खोल न दिखलाया।
शुष्क आवरण श्रीफल जैसा, अंदर रस का सागर है।
संतति के समक्ष हिय अपना, नहीं खोल कर दर्शाया।
पितु कुटुंब की मुख्य धुरी है, नहीं किसी से जतलाया।
सबकी इच्छा पूरी करता, जिसके मन में जो आया।
उत्तरदायित्व निभा रहा वह, इसमें पीछे नहीं हटे,
संकट में वह रक्षा करता, गहन वृक्ष सम दे छाया।।
– कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, उत्तर प्रदेश