मंच से कुछ नामधारी व्यर्थ करते गर्जनाएं,
लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।
रोज विष का पान करती रो रही गंगा हमारी ,
सात दशकों में दिखी सरकार की करतूत सारी।
युक्तियाँ पायी नहीं जो रोक दें दूषित प्रथाएं,
लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।1
बिंब, रूपक, छंद वाला रुक गया साहित्य का रथ ,
चाकरों के हाथ बंदी मंच का सीधा सरल पथ ,
सारथी साहित्य के ही भूल बैठे सच दिशाएं ।
लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।2
कौन समझेगा हमारी कौम की अंतर व्यथा को ,
कौन परखेगा हमारे छंद को सच्ची कथा को ,
कथ्य की मरने लगीं हैं अर्थगत संभावनाएं ।
लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।3
सात तारे आसमां के लुप्त ऋषिवर दिख रहे हैं ,
धुंध ने धरती ढकी है सुप्त दिनकर दिख रहे हैं ,
यंत्र युग में मंत्र की हम खो रहे वैदिक ऋचाएं ।
लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।4
नाद पश्यन्ती,परा ने मौन व्रत धारण किया है ,
मध्यमा ने वैखुरी से द्वंद किस कारण किया है ,
लेखिनी के जोर से अब तोड़ “हलधर” ये शिलाएं ।
लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।5
– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून