प्रेम न मरने वाला वो सत्य है,
जो कभी असत्य का सहरा ले ही नहीं सकता।
प्रेम तो प्रेम है !
लेकिन सच बताओ……
क्या वास्तव में तुम मुझसे उतना ही प्रेम करती हो ?
जितना मैं तुम से करता हूँ।
बताओ तो सही,…..
क्या तुम भी मेरी भांति… ,
प्रेमाग्नि और विरहाग्नि की वेदना को,
उर तल तक महसूस करती हो।
क्या तुम्हारा प्रेम मतलबी है ?
या तुम मुझसे बिन मतलब के प्रेम करती हो ?
इस रहस्य को, मैं सदियों से खोज रहा हूँ ।
ना मैंने तुम्हें देखा है, न तुमने मुझे,
किन्तु स्वप्नों को साकार करने के लिए ,
मैं तुम तक पहुंचना जरूर चाहता हूं ।
क्यूंकि जिस प्रेम की डोर से हम दोनों बंधे है ,
उस प्रेम धागे का एक छोर ,
मेरी ख्वाहिशो से बंधा है तो ,
दूसरा छोर तुम्हारे ह्रदय द्वार की दहलीज़ से ।
तुम्हारे निर्मोही मन से ,
मेरी हसरतें जाने क्यूँ निराश होकर लौट आती है।
फिर भी मेरी भावनाएं ,
तुमसे मिलने के लिए,
अनवरत प्रयासरत रहती है,
इस उम्मीद से कि ,
कभी तो तुम्हारा पाषाण ह्रदय, कोमल होगा।
परन्तु जब कभी डरते-डरते,
अपने लोचन खोल अतीत को निहारता हूँ ,
आशा और निराशा के बीच फंस कर रह जाता हूँ।
कभी-कभी तुम्हारा एहसास मुझे छूकर चला जाता है ,
मैं पल भर के लिए आशाओं के पंख लगा कर ,
भावनाओं के अम्बर में विचरण करने लगता हूँ ,
फिर भी धरातल पर खुद को तन्हा ही पाता हूँ। ,
चक्षुओं को जब बंद करके देखता हूँ तो ,
तुम अपने हाथ में मेरा हाथ पकडे ,
मेरे साथ-साथ प्रेम पथ पर चल रही हो ,
कभी तुम अपने अधरों से मेरे कपोल को स्पर्श करती हो ,
तो कभी अपने उर को मेरे उर पर रख देती हो ,
सच तो ये है……
तुम चाहतों में मेरी, शेष लगते हो ,
ख्वाहिशों में मेरी, विशेष लगते हो।
ज़िंदगी में सुकूं-ओ-विद्वेष बन के ,
हर्फ़-दर-हर्फ़ मुझे, अशेष लगते हो।
ये अधजली सी ख्वाहिशे ,
ये सुलगते से जज्बात,
ये सिसकती हसरतें ,
आज भी व्याकुल है तुमसे मिलने को।
तुम्ही बताओ……,
ये प्रेमाग्नि है या विरहाग्नि।
– विनोद निराश, देहरादून