:”जीने की कला” –
चार पल जी लें खुशी से गम भुलाने के लिये।
हो दवा सँग एक घावों पर लगाने के लिये।
आपसी संवाद से बनते सदा हर काम हैं,
कर्म केवल मत करें जग को दिखाने के लिए।
“बदलती संवेदनाएं” –
मानस बदल रहा मानव का, कुछ भी कर जाते।
नहीं सनातन संस्कारों को, दिल से अपनाते।
आसपास क्या घटता अपने, फर्क नहीं पड़ता,
पीर पराई देख नयन से, अश्रु न छलकाते।
– कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, उत्तर प्रदेश