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माचिस – प्रदीप सहारे

औंधी पड़ी ,

माचिस की डिबीया ।

सिसक रही थी ।

कर रही थी कुछ,

खुद से बड़ बड़ ।

मैं थोड़ा रुका,

लगी कुछ गड़ बड़ ।

उठाया,की कुछ बात

खोल दिये उसने,

सारे के सारे जज्बात ।

कहने लगी,

” बरसो से कर रही हूं,

समाज  की सेवा ।

ना देखा गरीब,ना अमीर।

सब की सेवा में मेरा ज़मीर।

सब ने किया मुझे,

हर जगह नंगा ।

धर्म ठेकेदारो ने धर्म के नाम,

भड़काया दंगा ।

कराकर मुझे  नंगा,लगाई आग।

खून का प्यासा,समाज हुआ नंगा ।

स्टोव्ह से जोड़कर मेरा नाता,

हुआ कलंकित,सास बहू का नाता।

साजिश में मुझे किया शामिल,

कही जली झोपडी,कही जला मील ।

फिर भी मैं शांत,

क्योंकि..

मंदिर की पूजा में लिया मुझे साथ।”

फिर मैंने पूछा..

” नाराजी की क्या बात..”

फिर बोली,

” नाराजी की हैं बात ।

जिनकी नही थी औकात,

सामने मेरे,बडी औकात ।

आसमाँ छूने लगे भाव,

चारों तरफ, महंगाई की आग।

सबके भाव बडे,

लेकिन मेरे…

सालो से हैं,

सोलह आने पर अड़े ।

फिर,ना रहूं नाराज तो क्या !!

नाराजी उसकी, आई समझ।

रखकर कोने, दूर हुआ दो गज़।

मन में कहा..

दर्द ऐ दास्ता चापलूस हमेशा आगे बढे,

आग लगाने वाले हैं वही के वही खडे ।

✍️प्रदीप सहारे, महाराष्ट्र, नागपुर

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