खुद को समझाओगे कैसे?
मुझको तुम भूलाओगे कैसे?
चला गया छोड़के शहर तेरा,
फिर मुझको बुलाओगे कैसे?
लूट गई जो दुनियाँ-ए-इश्क़,
शहरे-उल्फत बसाओगे कैसे?
तेरी नज़र का मैं खार सही,
मुझसे दामन छुड़ाओगे कैसे?
दो कदम जो पीछे हटा मैं ,
एक कदम बढ़ाओगे कैसे?
तुमको मुझसे कभी इश्क़ था,
बात ये तुम छुपाओगे कैसे?
फ़ना हो गया अगरचे निराश,
रस्म-ए-वफ़ा निभाओगे कैसे?
– विनोद निराश, देहरादून