आजकल चल रहा हूँ मैं,
हवा के रुख के साथ,
हवा के विपरीत भी चल कर देख लिया,
बहुत ऊर्जा लगानी पड़ती है,
मगर जीत पाँऊं ये भी जरूरी तो नहीं।
खामोश रहता हूँ मैं आजकल,
रोजमर्रा की भागदौड़,
ज़िंदगी का अथाह रेगिस्तान,
बस पार करने की जुगत में रहता हूँ,
मगर पार कर पाऊँ ये भी जरूरी तो नहीं।
दर्द से लबरेज़ नामुक़्क़मल चाहते,
जैसे खा रही हो वक़्त थपेड़े,
किसी गहरे समन्दर के भँवर में,
धधकती विरहाग्नि से निकलने की कोशिश,
मगर निकल पाँऊं ये भी जरूरी तो नहीं।
ये रुखा-रुखा सा मिज़ाज़,
बेमौसमी इश्क़िया परवाज़,
गर्क होती अशेष हसरतों को,
खुद-ब-खुद समेटने की फिराक,
मगर समेट पाँऊं ये भी जरूरी तो नहीं।
तार-तार होती ख्वाहिशे,
टूटते इन्द्रधनुषी स्वप्न,
टपकते विरह के आँसूओं को,
संभालने की कोशिश करता निराश मन,
मगर संभाल पाँऊं ये भी जरूरी तो नहीं।
– विनोद निराश, देहरादून