ज्येष्ठ- सी मैं तप रही हूँ और मुझको मत तपाओ।
इक तरफ तो है विरह की
इस हृदय नभ में घटाएं ।
और तुम भी दे रहे हो,
दूर रहकर चिर व्यथाएं ।
श्याम घन बन कर बरसने,सद्य चलकर पास आओ ।
ज्येष्ठ-सी मैं तप रही हूँ, और मुझको मत तपाओ…..
कर दिया अति राग विह्वल,
है विगत की कल्पना ने ।
मुंह चिढाया कल मुझे इस,
द्वार चित्रित अल्पना ने ।
सूखते श्रृंगार में प्रिय ! प्रीत के नवरस मिलाओ ।
ज्येष्ठ-सी मैं तप रही हूँ,और मुझको मत तपाओ….
एक पत्थर को प्रतिष्ठित,
कर लिया मैंने हृदय में ।
क्या पता था पीर इतनी,
तीव्र होती है प्रणय में ।
इस निपट पाषाण को तो,योग्य अर्चन के बनाओ ।
ज्येष्ठ-सी मैं तप रही हूँ,और मुझको मत तपाओ ।
– अनुराधा पाण्डेय , द्वारिका , दिल्ली