अब उम्र-ए-खिंजा भी हमको डरा रहा है,
कैसे रहे अकेले बूढ़े बता रहा है।
यारी रही मजहबी, रहते हैं भाई बनकर,
फिर कौन आये दिन ये बस्ती जला रहा हैँ।
चाहत भी तुम हमारी किसको बताए दिल की,
ऐसे मे यार हमको क्यो आजमा रहा है।
अंजान थी मुहब्बत चुपचाप रह फसीले.
पाया जो प्यार तेरा हमको रूला रहा है।
सरहद पे आज बैठे,रखवाले है वतन के,
फिर कौन आये दिन ये दशहत फैला रहा है।
छिनता है हक दुखी का,गमगीन लोग देखें,
खैरात को भी तरसे क्यो दिल बुझा रहा है।
है दूर मुझसे जाने क्यो याद आ रहा है,
की हरकते बुरी अब दिल को जला रहा है।
– रीता गुलाटी ऋतंभरा, चण्डीगढ़