वो किसी की आँख का नूर हो गया,
कल था पास मेरे आज दूर हो गया।
नसीब तो इतना बुरा न था मगर,
मुफलिसी का मेरी कसूर हो गया।
सोचता रहता हूँ अब तो तन्हाई में,
जाने क्यूँ बेवफा मेरा हुज़ूर हो गया।
सादगी पे जिसकी लूट गए थे कभी,
सादापन वो आज बेशऊर हो गया।
ये तलब इश्क़ की अब क्या बताएं,
प्यार करना जैसे कसूर हो गया।
बहाना बनाना तो कोई उनसे सीखे,
हम कसूरवार वो बेक़सूर हो गया।
उनकी बेतहाशा ख्वाहिशों के आगे,
मासूम सा दिल चकानाचूर हो गया।
दरकार किसे अब इश्क़ से रिहाई की,
जब मुंसिफ मेरा कोहिनूर हो गया।
कुछ तो कट गई, कुछ कट जायेगी,
फैसला उनका निराश मंज़ूर हो गया।
– विनोद निराश, देहरादून