मैं हँसूंगी नहीं,
समझते मुझे तुम सब
न पढ़ जाते हो मेरा मन
मिलने का वक्त भी कुछ है कम
एक दिन जब मेरा अस्तित्व
हो जाएगा तब्दील
एक राख की ढेरी में
गंगा की लहरों में जब
करोगे विसर्जित मुझे
तो शायद होगा विलाप
पर तब मैं हंसूंगी
क्योंकि तब तक मैं
निकल जाऊंगी बहुत दूर
तुम सबकी पकड़ से
चाहकर भी नहीं मिल पाओगे
कभी भी मुझसे दोबारा
बस कुछ स्मृतियाँ रह जाएंगी शेष
और जिनमे ढूंढते रहोगे मेरे अवशेष।
– रेखा मित्तल, चंडीगढ़