जब घनी यामिनी से
छंटकर मुस्काती हुई
वो किरण आयेगी,
तब रिसता हुआ अंजुली का
पानी नव अंकुर पुनः रोपेगा
प्यासी मरू की धरा छटपटाकर
मनमाने मेघ को ताके,
विवश हुआ नभ का विस्तार
व्याकुल होकर बरसेगा
जब मैं तुमसे अपने अंतस
की सारी परते खोलूंगी
फिर एक कोने पर इन्द्रधनुष
मेरे मन का ठहरेगा,
छूकर गुजरेगी लबों से
गुजरे दिनों की वो अनकही बातें
फिर नेह धागे में बंधकर सांसे
पाना खोना बेमायने करके
एक तार नया सा छेड़ेगें…………!
ज्योत्स्ना जोशी, देहरादून, उत्तराखंड