अपनी ही परछाई से घबराती
कृशकाय होती काया
डगमगाते हुए से कदम
केवल बेंत का ही सहारा
अब वही थाम रही हाथ
बच्चे, अपने बच्चों में व्यस्त
सब अपनी दुनिया में मगन
आया था बेटा पिछले वर्ष
कुछ सामान दे गया था
डाक्टर को भी दिखा दिया था
पर माँ रह गई बिल्कुल अकेली
उस रखे सामान के साथ
स्नेह और ममता को ढूँढती माँ
रात भर जागती हैं
बूढ़ी होती माँ
अपनी ही परछाई से घबराती…
वीरान आँगन,मिलने को आतुर
खामोश आँखें ,निहारती पथ
सूना मन,जर्जर होती काया
हर आहट पर सोचती कोई आया
मैं भी कोशिश कर मिल लेती हूँ
हर एक दो महीने के बाद
बहुत कुछ नहीं बदलता
पर कुछ और बूढ़ी लगती है माँ
उसका स्नेह और ममता वही हैं
झुरियों की गहराई बढ़ जाती हैं हर बार
बूढ़ी होती माँ
अपनी ही परछाई से घबराती…
शनै: शनै: शीर्ण होती इंद्रियाँ
पोपले मुँह से निकलती हवा
अस्फुट,अस्पष्ट से शब्द
बयान करते हैं मन की व्यथा
बात करने को बेचैन
हर किसी से मिलने को उत्सुक
किसी के पास समय नहीं है
पर उसके पास केवल समय ही है
घड़ी की टिक-टिक के साथ
सोती और जागती है
बूढ़ी होती माँ
अपनी ही परछाई से घबराती…
भरोसा कर लेती हर व्यक्ति पर
चाहे बेटा, बेटी हो या बहू
हम भी तो केवल दिलासा ही तो देते हैं
बँधे हैं अपने हालातों के साथ
पर देख माँ को ख्याल आता हैं
क्यों नहीं रह सकती वह मेरे साथ
कुछ डर या दुनियादारी का दिखावा
बूढ़े होते हर शख्स की यही व्यथा
रह नहीं पता अपनी जड़ों को छोड़
उसी ऊहापोह में जिंदगी जाती है निकल
बूढ़ी होती माँ
अपनी ही परछाई से घबराती…
वह अपना आँगन छोड़
नहीं रहती किसी के साथ
समझती हूं उसके मन की व्यथा
कैसे छोड़े उसे आँगन को
जहाँ पर सफर तय किया है उसने
जवानी से बुढ़ापे तक का
अब यादें ही तो है उसके पास
जिसको सीने से लगाए जी रही है
आत्म-सम्मान से जीने की ललक
नहीं जाती किसी बच्चे के साथ
खुश तो नहीं, पर संतुष्ट है
गर्व और दर्प से रहती है
बूढ़ी होती माँ
अपनी ही परछाई से घबराती ..
– रेखा मित्तल, चण्डीगढ़