तन्हा जिंदगी इक खण्डर है,
गमे-जुदाई हमारा मुकद्दर है।
आरज़ू-ए-जानेजां कुछ नहीं,
फकत फरेब का समंदर है।
ज़ुस्तज़ू थी चांदनी की मगर,
हाले-नसीब स्याह मुकद्दर है।
हसरते-महल जलजले सरीखी,
ख्वाबे-ताबीर जिसकी पत्थर है।
यूं तो है हर सू आलमे-मसर्रत,
मगर ख़ुशी कहाँ मयस्सर है।
पढता रहा रोज़ चेहरा जिसका,
वही शख्स निराश मेरे अंदर है।
– विनोद निराश, देहरादून