आज बहने लगे पसीने भी,
ज़ख्म चुभने लगे पुराने भी ।
जितने तैराक थे वो डूब गए,
काम आए नहीं सफीने भी ।
ज़िद उसी की थी मुझको पाने की,
मुझको मोती दिए नगीने भी।
इश्क़ की आग तेज़ थी इतनी,
ठंड में आ गए पसीने भी।
जान वो अपनी मानता है मुझे,
और देता नहीं है जीने भी।
– रीता गुलाटी ऋतंभरा, चण्डीगढ़