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ग़ज़ल – रीता गुलाटी

आज बहने लगे पसीने भी,

ज़ख्म चुभने लगे पुराने भी ।

 

जितने तैराक थे वो डूब गए,

काम आए नहीं सफीने भी ।

 

ज़िद उसी की थी मुझको पाने की,

मुझको  मोती  दिए नगीने भी।

 

इश्क़ की आग तेज़ थी इतनी,

ठंड में आ गए पसीने भी।

 

जान वो अपनी मानता है मुझे,

और देता नहीं है जीने भी।

– रीता गुलाटी ऋतंभरा, चण्डीगढ़

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