मनोरंजन

धूप छाँह होना – सविता सिंह

करूँ कैसे शब्दों मे अंकित,

जो रखा है सदियों से संचित

कुछ लम्हें कुछ स्वर्णिम शामे

क्या कर पाऊँगी उनको चित्रित?

वो ओस की बूँदों का झर जाना,

धूप छन कर बिस्तर तक आना,

कोई तो भावों को मढ़ देता,

उस धूप का फिर छाँव हो जाना।

समेटकर धूप आँचल में

हो जाती थी कितनी पुलकित,

क्या कर पाऊँगी उनको चित्रित?

अलि जो पीते हैं मकरंद

मिल जाते शब्द कुछ चंद

समेट लेती उन क्षणों को,

फिर गढ़ देती गीत और छंद।

गुन गुन भौरों के स्वर वो गुंजित

क्या कर पाऊँगी उनको चित्रित?

प्रेम में वो राह तकना,

फिर दृगों का झुक जाना,

चुन चुन कर उर स्पदन को,

सहज़ कहाँ उनको लिख पाना।

स्वप्न होते थे जो तरंगित

क्या कर पाऊँगी उनको चित्रित?

लिख तो दूँ वो लम्हें सारे,

गढ़ भी दूँ चिन्हे सब प्यारे,

पर गुजरा पल कैसे आये,

जिस पल अपना मन थे हारे।

उन प्रणय के स्पर्शों को जो किये हैं अर्जित

क्या कर पाऊँगी उनको चित्रित?

– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर

Related posts

गज़ल – झरना माथुर

newsadmin

गजल – ऋतु गुलाटी

newsadmin

कविता – सन्तोषी दीक्षित

newsadmin

Leave a Comment