इश्क़ को मेरे आवारगी समझा न किजिये,
गुम हूँ तुझमे ही बेरुखी समझा न किजिये।
हर जुल्म तेरा मुस्कुरा के सह लेते है मगर,
तबस्सुम को बुज़दिली समझा न कीजिये।
दौर-ए-गर्दिश ने बख्शे है अँधेरे तो क्या हुआ,
मुक़ददर को मेरे तीरगी समझा न कीजिये।
चश्मे-अश्कबार हुई फुरकत में तुम्हारी पर,
दरिया-ए-अश्क़ को नदी समझा न कीजिये।
न पहनने का शौक रहा न संवरने का शऊर,
आदत को मेरी मुफ़लिसी समझा न कीजिये।
गर दोस्तों में बैठ के मुस्कुरा लेते है तो क्या?
मेरी इस मजबूरी को ख़ुशी समझा न कीजिये।
हालते-नसीब का मारा हुआ है ये निराश दिल,
हरगिज़ इसे फरेबे-आशिकी समझा न कीजिये।
– विनोद निराश, देहरादून