मनोरंजन

ग़ज़ल – विनोद निराश

झुका नज़र रुत हंसीन कर गई,

दिल बेचैन नाज़नीन कर गई।

 

बिखरा के जुल्फों को शानों पर,

तन्हा शाम मेरी रंगीन कर गई।

 

मख़मली से रुखसार सुर्ख लब,

फरेब वो बू-ए-नसरीन कर गई।

 

सुफेद दुपट्टा वो कानो की बाली,

जुर्म मुझपे वो संगीन कर गई।

 

मिज़ाजे-मौसम तो बेहतर था पर,

उसकी बेरुखी बे-रंगीन कर गई।

 

चैनों-सुकूं कहाँ रहा बादे-रुखसत,

निराश ज़िंदगी ग़मगीन कर गई।

– विनोद निराश , देहरादून

Related posts

ग़ज़ल – रीता गुलाटी

newsadmin

वसंत – मधु शुकला

newsadmin

गजल – रीता गुलाटी

newsadmin

Leave a Comment