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शिक्षा के अग्रदूत: महात्मा ज्योतिबा फुले – हरी राम यादव

neerajtimes.com – बात एक ऐसा अमूल्य हथियार है जिससे कोई व्यक्ति अगर प्रभावित हो गया तो वह सदा सदा के लिए आपका प्रशंसक बन सकता है और यदि आपके द्वारा कही गयी कोई बात उसको लग गई और उसने उस बात को निरर्थक रूप में अपनी बेइज्जती करना समझ लिया तो वह आपका सबसे बड़ा शत्रु बन सकता है, लेकिन आपके द्वारा कही गयी लगने वाली किसी बात को यदि उसने सार्थक रुप में ले लिया तो वह व्यक्ति एक ऐसा इतिहास लिख देगा , जिसका दुनिया में कोई सानी नहीं होगा, वह उस ठेस पहुंचाने वाली बात से आहत होकर एक ऐसा सृजन कर देगा कि दुनिया देखती रह जाएगी। 18वीं शताब्दी में एक ऐसे ही महापुरुष हुए जिन्होंने शिक्षा और महिला उत्थान की दिशा में इतिहास लिख दिया, उनका नाम था महात्मा ज्योतिबा फुले ।

महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 ई. को पुणे की खानवाडी गांव के एक माली  परिवार में वहां लगने वाले ज्योतिबा के वार्षिक मेले के दिन श्रीमती चिमनाबाई और श्री गोविंदराव फुले के यहाँ हुआ था, इसलिए उनके परिवार ने उनका नाम ज्योतिबा रखा। गांव समाज में पहले इसी तरह के नाम रखने का चलन था। एक वर्ष की अवस्था में ही इनकी माता श्रीमती चिमनाबाई का निधन हो गया और इनका लालन पालन एक बायी ने किया ।  तत्कालीन पिछड़े समाज में  शिक्षा को महत्व नहीं दिया जाता था,  बच्चों को भी बचपन से ही जीविकोपार्जन के काम में लगा दिया जाता था। काफी बड़ा होने पर वह अपने गांव के पास के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने जाने लगे जहाँ उन्होंने पढ़ने, लिखने और अंकगणित के बारे में  सीखा। ज्योतिबा के पिता ने घरेलू कार्यों में हाथ बंटाने के लिए उनकी पढ़ाई छुड़वा दी । वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ दुकान और खेत दोनों में काम करने लगे। उनके गांव के एक सजग व्यक्ति ने उनकी बुद्धिमत्ता को पहचाना और उनके पिता को उन्हें स्थानीय स्कॉटिश मिशन हाई स्कूल में भेजने के लिए  राजी किया । ज्योतिबा ने 1847  में अपनी अंग्रेजी स्कूली शिक्षा पूरी की। 13 साल की छोटी उम्र में उनके पिता ने उनका विवाह सावित्री बाई से कर दिया।

सन् 1848 में  उनके जीवन में एक मोड़ आया। उनके एक ब्राह्मण मित्र की शादी थी और उस मित्र ने उन्हे अपनी शादी में बुलाया था। जब यह बात उनके मित्र के  माता-पिता को पता चली तो उन लोगों ने ज्योतिबा को बुरा भला कहकर अपमानित किया। इस घटना ने ज्योतिबा को गहराई से प्रभावित किया। यहीं  से ज्योतिबा के मन में जाति व्यवस्था में निहित अन्याय के  विरुद्ध उठ खड़ा होने का संकल्प जगा। उन्होंने यह ठान लिया कि वह समाज में जाति के नाम पर हो रहे अत्याचार को बंद करके ही दम लेंगे। उन्होंने सोचा कि जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे तब तक समाज में बदलाव नहीं लाया जा सकता। उस समय जाति व्यवस्था के साथ साथ जिनकी दशा सबसे सोचनीय थी वह था स्त्री समाज।

 

उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए सन् 1848 में एक स्कूल खोला। यह स्त्री शिक्षा के लिए देश में पहला स्कूल था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए उन्हें कोई अध्यापिका नहीं मिल रही थी क्योंकि  उस समय समाज में स्त्री शिक्षा न के बराबर थी और पर्दा प्रथा का बोलबाला था। उन्होंने पहले स्वयं इस विद्यालय में पढाना शुरू किया और धीरे धीरे इस काम के लिए अपनी पत्नी सावित्री बाई को पढ़ाकर इस योग्य बना दिया कि वह उनके कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ स्त्री शिक्षा की अलख जगाने लगीं। समाज में बदलाव को देखकर कुछ पुरातनपंथी  लोग उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा करने लगे। ज्योतिबा  ने ऐसे लोगों की परवाह नहीं किया और अपने उद्देश्य में लगे रहे, तब उन लोगों ने ज्योतिबा के पिता पर दबाब डालकर उनको घर से निकलवा दिया। ज्योतिबा के पिता पुराने विचारों के व्यक्ति थे, वह इन लोगों की कुटिलता को समझ नहीं पाए। रहने के लिए व्यवस्था करने में ज्योतिबा का कुछ समय बर्बाद जरूर हुआ, पर उनके विचार और दृढ़ हो गये। वह दोनों अपने दृढ़ विश्वास और संकल्प पर अडिग रहे और बालिका शिक्षा के लिए तीन स्कूल खोल दिए।

ज्योतिबा ने सन 1873 में  गरीब वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना किया। सत्य शोधक समाज की स्थापना के बाद इनके सामाजिक कार्यों की देश भर में सराहना होने लगी। इनकी समाजसेवा को देखते हुए मुंबई की एक सभा में 11 मई 1888 ईo को विट्ठलराव कृष्णाजी वंडेकर ने इन्हें महात्मा की उपाधि से सम्मानित किया। महात्मा ज्योतिबा ने इस सम्मान के बाद कहा—“मुझे ‘महात्मा’ कहकर मेरे संघर्ष को पूर्णविराम मत दीजिए। जब कोई व्यक्ति मठाधीश बन जाता है तब वह संघर्ष नहीं कर सकता,  इसलिए आप सब मुझे साधारण मनुष्य  ही रहने दीजिए , आप लोग मुझे अपने बीच से अलग न करें।

ज्योतिबा ने पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरम्भ कराया और बाद में इसे मुंबई उच्च न्यायालय से भी मान्यता मिली। ज्योतिबा बाल-विवाह विरोधी के प्रखर विरोधी और विधवा-विवाह के प्रबल समर्थक थे। ज्योतिबा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।ये उच्च कोटि के लेखक भी थे, उन्होंने अपने जीवन काल में कई पुस्तकें भी लिखीं- छत्रपति शिवाजी, गुलामगिरी, तृतीय रत्न, राजा भोसला का पखड़ा, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत। ज्योतिबा और  उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया। इनकी मृत्यु 28 नवंबर 1890 ईo को 63 वर्ष की अवस्था में पुणे में हो गयी।

महात्मा ज्योतिबा फुले की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे जो कुछ कहते थे, वह उसे अपने आचरण और व्यवहार में उतारकर दिखाते थे जबकि समाज में आज सबसे बड़ी कमी यही है। आज लोग दिखाने  के लिए कहते कुछ है और व्यहार में कुछ करते है। कथनी और करनी की एकात्मकता जीवन में बहुत जरुरी है ।

 

– हरी राम यादव, बनघुसरा, अयोध्या, उत्तर प्रदेश,  फोन नंबर – 7087815074

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