मनोरंजन

ग़ज़ल (हिंदी) – जसवीर सिंह हलधर

मज़हबी उन्माद गोली गालियों तक आ गए ।

ख़ून के कतरे गली की नालियों तक आ गए ।

 

दूसरों के पढ़ रहे हैं छंद मुक्तक मंच पर ,

सुर्खियां पाने लतीफे तालियों तक आ गए ।

 

वक्त का पहिया किसे कुचले  किसी को क्या पता ,

आग के शोले चमन में मालियों तक आ गए ।

 

कान दीवारों से निकले चक्षुओं से जा मिले ,

झांकने खिड़की के अंदर जालियों तक आ गए ।

 

पायलों पर शे’र कहने को कहा मैंने उन्हें ,

ताकते गोलाइयों को पालियों तक आ गए ।

 

कौन फूलों को बचाएगा महकते बाग में ,

मनचले भँवरे गुलों की डालियों तक आ गए ।

 

खीर पूरी और हलुआ से बड़ा पिज्जा हुआ ,

पश्चिमी पकवान अपनी थालियों तक आ गए ।

 

राजगद्दी के लिए क्या क्या नहीं होता यहां,

बीवियों को छोड़ नेता सालियों तक आ गए ।

 

दूर से देखा मगर उसकी निगाहें कह गईं ,

चश्मदीदा यार ‘हलधर’ बालियों तक आ गए ।

– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

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