मज़हबी उन्माद गोली गालियों तक आ गए ।
ख़ून के कतरे गली की नालियों तक आ गए ।
दूसरों के पढ़ रहे हैं छंद मुक्तक मंच पर ,
सुर्खियां पाने लतीफे तालियों तक आ गए ।
वक्त का पहिया किसे कुचले किसी को क्या पता ,
आग के शोले चमन में मालियों तक आ गए ।
कान दीवारों से निकले चक्षुओं से जा मिले ,
झांकने खिड़की के अंदर जालियों तक आ गए ।
पायलों पर शे’र कहने को कहा मैंने उन्हें ,
ताकते गोलाइयों को पालियों तक आ गए ।
कौन फूलों को बचाएगा महकते बाग में ,
मनचले भँवरे गुलों की डालियों तक आ गए ।
खीर पूरी और हलुआ से बड़ा पिज्जा हुआ ,
पश्चिमी पकवान अपनी थालियों तक आ गए ।
राजगद्दी के लिए क्या क्या नहीं होता यहां,
बीवियों को छोड़ नेता सालियों तक आ गए ।
दूर से देखा मगर उसकी निगाहें कह गईं ,
चश्मदीदा यार ‘हलधर’ बालियों तक आ गए ।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून