आस के हर श्वास की गति मौन हो गंतव्य धाए।
चाँद खिल मुरझा गया पर पीर आई तुम न आए।
बात कहने को बहुत थी पर अधर तक आ न पायी।
भाव के उस बाँकपन को चुप्पियों ने थी सुनाई।
काल के उस वक्र क्षण में याद बस तेरी सताए।
चाँद खिल मुरझा गया पर पीर आई तुम न आए।
ग्रीष्म पावस का हुआ है अब यहाँ अवसान फिर से,
आ गया देखो शरद का कँपकपाता मास फिर से
पर हृदय के कन्पनों में पीर बैठी घात लाए।
चाँद खिल मुरझा गया पर पीर आई तुम न आए।
मैं नदी की धार अनमन जा समंदर में मिली हूँ।
चेतना अवचेतना के बीच में बेबस खड़ी हूँ।
झील में उठती तरंगें धो रही काजल व्यथाएं।
चांद खिल मुरझा गया पर पीर आई तुम न आए।।
वक्त के इन करवटों का संग मौसम ने दिया है।
शीत पर बादल घनेरा नित्य पहरा दे रहा है।।
क्या कहूँ प्रतिबंध सारे बन गयी है यातनाएं।
चाँद खिल मुरझा गया पर पीर आई तुम न आए।।
– प्रियदर्शिनी पुष्पा पुष्प , जमशेदपुर