मुझे मदन ! इतना बतलाओ ,
भ्रमित हुआ यह मन समझाओ ।
पूजन तेरा करूँ मगन या,
तुझे मदन ! मैं प्यार जताऊँ ?
पूजूँ तो पत्थर बन जाते,
मेरे मन को तनिक न भाते ।
चेतनता ही जड़ हो जाती,
मुझे मदन ! हर पल भरमाते ।
सुमन हाथ से गिर-गिर कहते –
वंदन या मनुहार जताऊँ ।
तुझे मदन —
युग बीते हैं थकी अर्चना ,
रंग न लाई कभी साधना ।
बैठे-बैठे आँखें थिर हैं,
लगता है ज्यों मरी चेतना ।
रोम-रोम चुप कहता अब तो-
वारूँ या अधिकार जताऊँ ?
तुझे मदन ! मैं प्यार जताऊँ ?
पता नहीं जग क्यों पागल है,
मूल काटकर तने सींचता ।
दुश्मन जग है मूर्त देह का,
जीते जी ही प्राण खींचता ।
शून्य देखती जब ये आँखें-
किस पर कह! स्वीकार जताऊँ ?
मुझे मदन ! इतना बतलाओ ,
भ्रमित हमारा मन समझाओ ।
पूजन तेरा करूँ मगन या,
तुझे मदन ! मैं प्यार जताऊँ?
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली