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ग़ज़ल – रीता गुलाटी

जुल्म होता देखता फिर, मेहरबानी किस लिये.

हौसला भीतर नही फिर ये जवानी किस लिये।

 

लोग पहुँचे अर्श से क्यो फर्श पर,जाना नही.

वक्त माँगे अब जहाँ से इक निशानी किस लिये।

 

इश्क से वाकिफ नही जो पूछते हैं इश्क क्या?

जो न डूबा इश्क मे,पूछे कहानी किस लिये।

 

जिंदगी क्या है, कहाँ गुजरी है कुछ सोचो जरा.

रास्ते मुशकिल भले थे, हँस गुजारी किस लिये।

 

आशिकी की राह मे,गुजरी  है रातें जब बडी.

मुस्कुराते लब हैं तो आँखो मे पानी किस लिये।

– रीता गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़

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