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मिट गये अरमान – अनुराधा पाण्डेय

पास मेरे भूल कर भी मत फटकना।

मैं सहोदर हूँ अभागिन चिर व्यथा का।

 

आज तक का तो यही अनुभव बताता ,

सौख्य किसको दे सका सानिध्य‌ मेरा ।

एक भी तो अङ्क जीवन का न शुभ है,

आदि दुख,दुख अन्त, शापित मध्य मेरा ।

मूढ़ता है सोचना अपवाद इसका –

है असम्भव अन्त हो अब इस प्रथा का।

मैं सहोदर हूँ अभागिन–

 

हां ! कभी थे स्वप्न मेरे भी यही तो ।

तुम,तुम्हारा राग रञ्जन,चाँद तारे।

किन्तु क्रम से डूबते ही तो रहे हैं,

हाय ! मेरे भाग्य के सारे सितारे ।

दंश मिलता एक, तो क्षण शोक करता—

कार्य पर रोना बिलखना अब वृथा का।

मैं सहोदर हूँ अभागिन–

 

ज्ञात मुझको यह नहीं ,क्यों आज भी तुम

खोजते हो प्यास का हल रुक्ष मरु में ।

जानतें है बुद्धिवादी इस जगत के

पुष्प खिल सकते नहीं हैं ठूंठ तरु में ।

मत बनो तुम पात्र ऐसे नाट्य पट का —

कारुणिक ही अंत होना जिस कथा का ।

पास मेरे भूल कर भी मत फटकना,

मैं सहोदर हूँ अभागिन चिर व्यथा का ।

– अनुराधा पाण्डेय , द्वारिका, दिल्ली

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