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शरद पूर्णिमा – विनोद निराश

काश तुम पुकारते मुझे,

सुकून से शरद पूर्णिमा में ,

मैं भी कर लेता ख्याल तुम्हारा।

 

बेशक करती यादें नर्तन

थकी हुई पलकों पर मेरी,

मैं भी कर लेता ख्याल तुम्हारा।

 

खोई रहती हो तुम खुद में,

काश मुझमें कभी खो जाती,

मैं भी कर लेता ख्याल तुम्हारा।

 

आजकल भटकती फिरती चुप्पी मेरी,

काश तुम मेरी तन्हाई में आ जाती,

मैं भी कर लेता ख्याल तुम्हारा।

 

आज शरद पूर्णिमा में ज्योत्सना,

चन्द्रमा की सोलह कलाओं में आती,

मैं भी कर लेता ख्याल तुम्हारा।

 

शरद पूर्णिमा में राज़ चंद्र का,

रात यौवनांगी में वो प्र्णय तुम्हारा ,

मैं भी कर लेता ख्याल तुम्हारा।

 

ज्योत्स्ना गर तुम्हे मालूम होता ,

कि तुम हो चन्द्र की सोलह कलाओं में से एक,

मैं भी कर लेता ख्याल तुम्हारा।

 

तुम बहुत याद आती हो ज्योत्सना,

काश तुम निराश को याद करती,

मैं भी कर लेता ख्याल तुम्हारा।

– विनोद निराश, देहरादून

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