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पगा कर क्षणों को – सविता सिंह

कुछ बुन लूँ

कुछ चुन लूँ

सिल लूँ कुछ लम्हें

लगाकर पैबंद

उसे सहेजें।

मिले फुर्सत जब

डालूँ खाद

अपने स्नेह की।

फूटेंगी फिर कोपले

बीते सारे पलों की।

एक लम्हा छुओ

तो दूजी जुड़ती गई

उससे कई और उभर

यादें हो हो गई नई।

छोड़ जाते हृदय में

अपनी अपनी चिन्हें।

तुम थे, वह थी,

तुम्हारे बातों पर,

उसने यह कहा था,

फिर सब मिलकर

जोर से हंसे थे।

सारी बातें एक

दूसरे से जुड़कर

बन गई वृहत वृक्ष

बन फिर लतायें

लिपट गईं उनके वक्ष।

सारे वो गुजरे पल

अन्तः करण में

पुनः जाते हैं मचल।

तभी तो है सिली

ताकि वह कभी

ना जाए फिसल।

जो चुना था

जो बुना था

पिरोया था सिला था

अचल अटल

सजा कर कलेवर

सुरक्षित है ह्रदय तल पर।

हर रोज डालती हूँ

इसमें स्नेह की खाद

हर रोज फूटती है

इसमें नई कोपलें।

– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर

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