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तुम जीवन सार – सविता सिंह

मैंने  किताब जब पूरी लिख ली,

और उसका निष्कर्ष  निकला तो,

पता  चला शीर्षक तो तुम ही हो।

क्या हुआ, कैसे हुआ, बेखबर थी,

हर वर्ण, हर शब्द, हर वाक्य, अंतरा,

वह तुम्हें ही परिभाषित कर रहे थे।

तुम तो बस अंकित होते चले गए,

और तुम्हें सिंचती, संचित करती गई,

और बस बन गई मेरी सबसे अच्छी कृति,

मेरे जीवन की अनुपम अनमोल निधि।

– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर

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