भारत मां को सता रही है, मज़हब की बीमारी ।
सत्ता हथियाने को एका, करते भ्रष्टाचारी ।।
भूखे औ लाचार दिलों में, धधक रही है ज्वाला ।
कहीं भूख से रोता बचपन, कहीं हाथ में प्याला ।
इंकलाब की वाट जोहता, झोंपड़ियों में नारा ।
घायल बिलख रहा है मेरा ,संविधान बेचारा ।
संसद में हंगामा करते , मज़हब के व्यापारी ।।
भारत मां को सता रही है मज़हब की बीमारी ।।1
आज़ादी या पराधीनता, खोयीं अंतर अपना ।
स्वर्णों के बच्चों को मानो, नौकरियां हैं सपना ।
हमें राह दिखलाने वाले, खुद ही रस्ता भूले ।
सात दशक से झूल रहे हैं , भूख गरीबी झूले ।
नेता झूठे जालसाज कुछ, ढोना क्या लाचारी ।।
भारत मां को सता रही है मज़हब की बीमारी ।।2
करना है आह्वान क्रांति का तनिक करो मत देरी ।
आतंकों के साये सर पे गूँज रही रण भेरी ।
बापू के चेले चिंतित हैं, संसद में कोलाहल ।
निर्वाचन के महापर्व की ,गांव गली में हलचल ।
जाति पांति पर आधारित , टिकटों की दावेदारी ।।
भारत मां को सता रही है मज़हब की बीमारी ।।3
वक्त तभी करवट लेगा जब , इंकलाब आएगा ।
अपराधी कोई भी नेता , जीत नहीं पाएगा ।
कुछ नेता विषधर समान हैं, भाषा बहुत विषैली ।
करते हैं विष वमन रोज वो ,भरी ज़हर की थैली ।
इनकी हार सुनिश्चित करना , कोशिश रहे हमारी ।।
भारत मां को सता रही है ,मज़हब की बीमारी ।।4
– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून