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पीर न जानी नदी की – अनुराधा पांडेय

पुष्प की आस कब थी हमें और से,

वेदना ही मिलेगी फलित ज्ञात था।

स्वप्न में पर न सोची कभी भूल से ,

हाय! तुमसे मिलेगी चुभन शूल की।

 

छोड़ देगा जगत साथ सोचा किए ।

भूल कर भी नहीं ध्यान हमनें दिए ।

एक तृण को भला कौन माथे मढ़े।

पुष्प सूखा कहाँ देवता पर चढ़े

किन्तु थी आस तुमसे तभी भी सखे!

रंच चिंता करोगे कभी धूल की।

हाय ! तुमसे मिलेगी चुभन शूल की।

 

मानती हूँ हुई मैं अभी ठूंठ हूँ,

रूष्ठ हमसे सतत दूर मधुमास है ।

किन्तु थे तो कभी डाल भी पुष्प भी,

आज चाहे हुआ नद्ध वनवास है ।

एक तुमसे मगर ये रही एषणा…

साध लोगे हरोगे सड़न मूल की ।

हाय ! तुमसे मिलेगी चुभन शूल की ।

 

साधना में कमी क्या हमारी रही ?

अर्चना क्या कहो ! व्यर्थ सारी रही ?

शत युगों से तुम्हें मैं रही साधती ।

नित्य तुमको हृदय से रही बाँधती ।

मात्र इतना बताओ हमें वल्लभे –

पीर है ये फलित कौन से भूल की ।

हाय ! तुमसे मिलेगी चुभन शूल की ।

–  अनुराधा पांडेय, द्वारिका ,दिल्ली

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