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सफर कटता रहा – विनोद निराश

अनगिनत पीड़ाओं का बोझ उठाये,

मन इच्छा की उन्मुक्तता पर,

मृगतृष्णा समेटे

मैं चलता रहा,

सफर कटता रहा।

 

पनपती तृष्णा के साथ

अनाधिकृत अनंत ख्वाहिशें,

जीवन की अविरल धार में बहती रही,

मैं चलता रहा,

सफर कटता रहा।

 

पनीले दृगों से,

अंजुरी भर दु:ख लेकर,

सुसुप्त पीड़ा की संकरी गली में,

मैं चलता रहा,

सफर कटता रहा।

 

चलते-चलते अचानक आ गई,

एक कंकड़ पाँव के नीचे,

तत्क्षण हुआ नई पीड़ा का अहसास मुझे पर ,

मैं चलता रहा,

सफर कटता रहा।

 

रिस-रिस कर दरकती रही मौन चाहतें,

कभी पीड़ा की अनुभूति,

तो कभी यादों की कसक टीस जगाती रही ,

मैं चलता रहा,

सफर कटता रहा।

 

हठीली तमन्नाएं व्यथित होती रही ,

कामनाएं ज्वार-भाटा बनती रही ,

तपते रेगिस्तान में निराश आस लिए

मैं चलता रहा ,

सफर कटता रहा।

– विनोद निराश, देहरादून

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