भाव मेरे जब कभी भी , रूठते है मीत।
मूंद आँखों को तभी मैं, गुनगुनाती गीत।।
पुष्प की बगिया सजाती, साथ रहती लिप्त।
चीरती फिर से निशा को , लौ हमेशा दीप्त।।
हूँ ज़रा नादान पर मैं , रच रही अनमोल।
ज्ञान थोड़ा मंद लेकिन, बोलती इक बोल।।
व्यर्थ की इस वेदना को, अब रही मैं त्याग।
बे वजह ही ये हृदय में , फिर लगाती आग।।
प्रेम की पूजा करूँ मैं, प्रेम हीं है सत्य ।
जब कभी जीवन रुलाये, प्रीत ना हो मर्त्य।।
आज के इस दौर में गर, तुम रहो जब साथ ।
जीत लूँगी मैं जहाँ को, छोड़ना मत हाथ ।।
– अर्चना लाल , जमशेदपुर, झारखण्ड