जगन्नाथ हे नाथ प्रभु, खड़े आपके द्वार।
दे दर्शन कृत-कृत करो, करवाओ भव पार।1
स्वामी तिहरी कृपा का, नहीं आदि या अंत।
स्वामी तव ब्रह्मांड के, महिमा अतुल अनंत।।2
मौसी के घर को चले, रथ में जग के नाथ।
बलदाऊ भी संग में, बहन सुभद्रा साथ।।3
नौ दिन तक सानंद कर, मौसी के घर वास।
यह रथ यात्रा नाथ की, भरती मन उल्लास।।4
रथ यात्रा से है जुड़ा , उत्सव का माहौल।
भक्तिभाव इतना भरा, जिसकी माप न तौल।।5
आते हैं नर-नारियाँ, रथ दर्शन के हेतु।
जन समुद्र ऐसा विरल, बँधे न जिस पर सेतु।।6
तीन रंग के रथ सजे, तीन रंग के छत्र।
तीनों जन की पा झलक, खुशी दिखे सर्वत्र।।7
ब्रह्मनाद से बज रहे, घन्टुल सँग घड़ियाल।
दोनो भ्रातागण चलें, मतवाली सी चाल।।8
इनके दर्शन के लिये, आतुर थे सब लोग।
रथ यात्रा के दो दिवस, अद्भुत था संयोग।।9
सबसे पहले रथ चला, जिसमें थे बलराम।
जन समुद्र लहरा रहा, भजता प्रभु का नाम।।10
धीरे धीरे बढ़ चले, गुंडीचा की ओर।
जगन्नाथ के नाम का, संग गूँजता शोर।।11
कंधे से कंधे छिले, जन-जन हुआ अधीर।
दर्शन पा बलभद्र के, हर्षित सभी शरीर।।12
बहन सुभद्रा के बसी, मन में नवल उमंग
दाऊ के पीछे चलीं, भ्राता द्वय के संग।13
घण्टुल ध्वनि सुन रथ चले, जन समुद्र के साथ।
उनके रथ को खींचने, लगे सहस्त्रों हाथ।।14
उल्लासित भगिनी हुईं, प्रफुलित सर्व समाज।
पा उनका आशीष अब, बनें सभी के काज।।15
– कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, उत्तर प्रदेश