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निद्रा-सुख (व्यंग्य) – श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी

neerajtimes.com – निद्रा-सुख से बड़े किसी और सुख की जानकारी हमें नहीं है। परनिंदा-सुख भी बड़ा मधुर होता है (विशेषकर तब, जब निंदा-पात्र के आस-पास होने की संभावना न हो, क्योंकि तब न तो जुबान पर किसी भी प्रकार की लगाम लगाने की आवश्यकता होती है और न दाल-भात में मूसलचंद की भांति भय एवं आशंका ही झांकते रहते हैं), लेकिन निद्रा-सुख की तुलना में वह उन्नीस ही ठहरता है, ऐसी अधिकांश मर्मज्ञों की राय है। कोई साहसी बंधु खोजपूर्ण सर्वेक्षण करे तो शायद और भी तथ्य सामने आएं।

निद्रा की अनेक कोटियां होती है, जैसे कि बस-यात्रा के हिचकोले और सहयात्री की झिड़की एवं धक्के, कक्षा से नीरस प्राध्यापक के किरकिरें व्याख्यान-मरू के बीच मरूद्यान जैसी, रेल के तीसरे दर्जे के रिजर्वेशन रहित भीड़भरे डिब्बे की फर्श पर बीड़ी-सिगरेट के अमूल्य दाह-संस्कारों, पान एवं खैनी की मुखामृतपूर्ण पावन पीकों, खाद्य पदार्थों के उच्छिष्ट अवशेषों, मूंगफली, संतरे, केले आदि के छिलकों, बच्चों के आवश्यक जैविक विसर्जनों,  एकालापों, संतों की मर्म एवं कर्ण-भेदी भक्ति-भावनाओं, भिक्षुसम्राटों की बहुविध याचनाओं, जेब-टटोलकों के अभूतपूर्व नितनवीन करतबों, नदी-नाव-संयोग की भांति दुर्लभ सज्जनों के चरणों की रज एवं उनके प्रहारों आदि का सेवन करती, मंच पर दूसरों के भाषणों अथवा काव्य-पाठ के बीच (लोकलाज के कारण) जम्हाई से टूटती हुई, किसी स्वनामधन्य आतिथेय के मच्छरों भरे कक्ष, पिस्सूभरे बिस्तर और खटमलभरी खाट पर सारी रात युद्धरत, पढ़ते-पढ़ते तथ्यों को हृदयंगम कराने में लग जाने वाली (यह विशेष रूप से छात्रसंगिनी है और परीक्षाकाले नवयौवन प्राप्त करती है), चौरगण सहायक (यह सभी ऋतुओं और सभी रात्रियों में चतुर्थ संधि के समय अर्थात मध्य रात्रि के एकाध घंटे पहले से दो-तीन घंटे बाद तक विशेष सुख देती है), चौरगणरक्षक (इसे श्वान निद्रा भी कहा जाता है, यह एकांत में अधिक उपयोगी होती है) लघु आयतनीय (बैठे-बैठे), समयबचाऊ (खड़े-खड़े या चलते-चलते), इच्छित (यह नेताओं की सहचरी है, जनसंपर्क के समय जोर पकड़ती है और केवल चुनाव के समय टूटती है, वह भी तब जब संघर्ष कांटे का हो), कुम्भकर्णी (जैसे फाइलों की सिर-शैय्या बनाए अधिकारियों की), आदि, आदि।

काल-भेद के अनुसार भी निद्रा के अनेक प्रकार होते हैं जैसे मध्यान्ह व्यापिनी, इसके लिए ऋतु का कोई विधान नहीं है पर यह सबसे अधिक व्यवधानवाधित निद्रा है। इसके अनेक व्यवधानकारकों में प्रमुख हैं डाकिया, अतिथि, लाउड स्पीकर, गाडिय़ों के कर्णवेधक निनाद, पड़ोसियों के बच्चे, जिन्हें अपने निद्रा-सुख के लिए घर से बाहर करके वे पूरी दोपहर के लिए पड़ोसियों की ओर ठेल देते हैं, भिखारी जिन्हें इस समय कुछ न कुछ पाने का पूर्ण विश्वास रहता है, क्योंकि अपने निद्रा साम्राज्य पर आए इस अप्रत्याशित, घोर संकट का आप तत्काल परिहार करेंगे। आवारा कुत्ते या गधे या दोनों जो इस समय सड़क या गली में ही रियाज करते हैं, मकान-मालिक जो मकान के ही नहीं आपकी निद्रा के भी स्वयंभू मालिक होते हैं।

कभी किराया मांगने, कभी उधार मांगने- इस पर उनका ही नहीं, उनके पूरे कुनबे का भी एकाधिकार होता है और कुछ नहीं तो माचिस, चीनी, हल्दी या नमक ही सही, कभी कोई न कोई शिकायत करने, उनके बच्चे जिन्हें नि:शुल्क ट्ïयूशन पढऩे के लिए जैसे केवल यही एक समय होता है और वे सारे के सारे अवांछनीय तत्व जिन्हें इस समय आप चकमा दे ही नहीं सकते, आदि,आदि), तमाच्छन्न (अंधेरा होने से लेकर उजाला होने तक), अखण्ड (कहीं भी, कभी भी, देश-काल-वातावरण- निरपेक्ष), परनिद्राहारी (खर्राटेभरी), उष:पायी (उषाकाल में गहराने वाली लाख सिर धुनने पर भी न टूटने वाली), सर्वांगसम्पूर्ण (जिसके लिए साधक-पृथ्वीपुत्र बहुमूल्य पलंगों, गुलगुले गलीचों अथवा गद्दों का परित्याग करके कभी-कभी सीधे निरावृत्त फर्श पर त्यक्त लज्जा सुखी भवेत् कहकर लम्बायमान होते देखे जाते हैं), आदि।

निद्रा का एक विशेष प्रकार बाराती-निद्रा है, जो महंगाई के इस युग में तीन-चार रातों से हटकर केवल एक रात ही रह गई है। इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटक है दरी या गलीचे में स्थान (यदि जनवासा शहर में हो) अथवा खाट (यदि जनवासा देहात में, गांव के भीतर या बाहर किसी अमराई में हों), की प्राप्ति है। देहात की बारात कुछ अधिक ही स्मरणीय होती है, क्योंकि शहर में तो स्थानाभाव की स्थिति में आप किसी गाड़ी या बस की रात्रि-सेवा का लाभ उठा सकते हैं अथवा किसी होटल आदि के पेइंग गेस्ट बन सकते हैं पर देहात में तो जहाज के पंछी वाली स्थिति रहती है। यह उन शहरियों के लिए विशेष रूप से रोमांचकारी होती है, जो सड़क से दूर वाले गांवों की ओर शायद ही कभी रुख करते हों। बैलगाडिय़ों (समृद्धि के प्रतीक ट्रैक्टर अब इस कार्य के लिए अधिक प्रयुक्त होने लगे हैं, जिससे रास्ते और भी अधिक गुदगुदे हो गए हैं) में सरल आवत्र्त गति (भौतिकी के विद्यार्थी इस अत्यंत महत्वपूर्ण परीक्षोपयोगी प्वाइंट को कृपया नोट करें) का सतत् अनुभव करते हुए और हर खांचे को देखकर (यदि वह सूर्य-चन्द्र-आच्छादक धूल के बीच दिख गया) अपनी हड्िडयों की रक्षार्थ आंखें मींचकर हार्दिक श्रद्धा के साथ रामरक्षास्तोत्र अथवा चण्डी-कवच का पाठ करते हुए और गाड़ीवान से खांचे बचाने की बार-बार प्रार्थना करते हुए नौ दिन में अढाई कोस की यात्रा संपन्न करके जब अभीष्ट गांव की सीमा के दर्शन होते हैं तो बारातीगण (जो अब तक शिवगण बन चुके होते है।), ब्रह्मानंद का अनुभव करते हैं और जनवासे पर पहुंचते ही खाटों पर कुछ इस भाव से टूटते हैं जैसे भूखे शेर शिकार पर या उद्यमी परीक्षार्थी परीक्षा कक्ष में बाहर से पहुंचायी गई सहायक सामग्री पर टूटता है। पराक्रम के अभाव में अथवा शील-संकोच के कारण जो इस महान कार्य में चूक गए उनके लिए धराशायी होने का ही एकमात्र विकल्प बचता है और वह भी अधिकतर बिना किन्हीं अतिरिक्त वस्त्रों के।

खाट-संग्राम के विजेता को और कोई भी कष्ट नहीं झेलना पड़ता, लेकिन इसमें विजित की मुख-मुद्रा और मन:स्थिति कुछ ऐसी बन जाती है कि उसे खाना-पीना कुछ अच्छा नहीं लगता और वह बराबर उस क्षण को कोसता रहता है जिसमें उसने ऐसी बारात में शामिल होने का निर्णय लिया था।

पर, कुछ ऐसी, ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले भी होते हैं, जो विषम से विषम परिस्थिति में भी खाट-संग्राम जीत लेते हैं। हमारे एक मित्र को इसमें महारथ हासिल है। उनका रण-कौशल देखने (और उससे लाभ उठाने) का एक अवसर हमें भी प्राप्त हुआ। हुआ यह कि रास्ते में हमारी बैलगाड़ी पिछड़ गई (संभवत: कुछ निहित स्वार्थों की साजिश से), अत: हमारे पहुचंने से बहुत पहले ही खाट-पर्व समाप्त हो चुका था। धराशयन की तलवार सिर पर लटकती देख हम रुंआसे हो गए पर मित्र के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं आई।

गाड़ी से उतरकर उन्होंने पूरे जनवासे का सिंहावलोकन किया। दो खाटें मिल पाने की कोई गुंजाइश न देख उन्होंने अपना लक्ष्य किसी बड़ी खाट को बनाया जिस पर हम दोनों रात काट सकें। सहसा उनकी आंखे दीप्त हो उठीं। बोले- ‘मेरे साथ आओ और में जो कुछ कहूं उसमें तुम केवल ‘हां मिलाते जाना।‘ हमने इसे बिना किसी संकोच के स्वीकार कर लिया।

सबसे अलग एक बड़े पलंग पर एक बाबा जी विराजमान थे- वयोवृद्ध, जटाजूट संपन्न, पोथी-पत्रा एवं समस्त पूजा-सामग्री से सुसज्जित। मित्र जी ने जाकर उन्हें साष्टांग दण्डवत् की। हमने भी उनका अनुकरण किया। बाबाजी ने बड़े प्रसन्न मन से हाथ उठाकर हमें शुभाशीष दिया। हम नीचे बैठने लगे तो उन्होंने एक ओर खिसककर हमारे बैठने के लिए पलंग पर जगह कर दी और आग्रह करके हमें पलंग पर ही बिठलाया। बड़े संकोच के साथ मित्रजी ने इसे स्वीकार किया।

बाबाजी, कुछ उपदेश कीजिए ताकि हम नारकीय जीव भी किसी प्रकार वैतरणी पार कर सकें। मित्र जी की इस प्रार्थना पर बाबाजी और अधिक प्रसन्न हुए।

उपदेश के बाद मित्र जी और उन्हें देखकर हम भी बाबाजी के चरण दबाने लगे। बाबाजी मना तो करते रहे पर हड्डीतोड़क एवं जोड़उखाड़क भीषण बैलगाड़ी-यात्रा के बाद चम्पीजन्य इस महान सुख को वे भी नहीं छोड़ सके।

चरण दबाते-दबाते मित्र जी बोले, बाबाजी, किसी दूसरी बारात में एक महान नर्तकी आई है। उसका नाम चमेलीबाई है और वह है भी बिल्कुल चमेली जैसी- सुंदर, सुकोमल, ताजी एवं सुवासित। क्यों जी, है न? हां, हम बड़े उत्साह से बोले। बेटा, हम साधु-महात्माओं को नाच-देखने से क्या लेना-देना है। बात तो सही है, बाबाजी। आपकी उमर भी काफी है। आपने अपनी जिंदगी में एक से एक नामी कलाकारों की कला देखी होगी पर हमें पूरा विश्वास है कि आप एक बार इसकी भी कला देख लेते तो बाकी सबकी कला आपको फीकी लगने लगती। क्यों जी? ……….

‘हां, हम बिना सोचे-समझे बोलते रहे। बाबाजी विषयांतर करते रहे पर लालटेन की मद्धिम रोशनी में भी मित्र ने उनकी आंखों में सुखेच्छा की चमक देख ली थी।

बाबाजी से विदा लेकर यानी आग लगाकर हम दूर हो लिए।

रात गहराई और लोग सो गए तो बाबाजी धीरे से उठे। मित्र ने इशारा किया। गांव में उस रात चार-पांच बारातें और आई थीं। निश्चित था कि बाबाजी किसी से पूछेंगे नहीं और सभी में जा-जाकर चमेलीबाई की खोज करेंगे। अत: यह भी निश्चित था कि उनके लौटकर आते-आते डेढ़-दो घंटे से कम नहीं लगेंगे।

उनके थोड़ा दूर होते ही मित्रजी ने उनका उब्बुक-तब्बुक नीचे रखा और हम दोनों बिना किसी प्रकार की आहट किए पलंग जनवासे के दूसरे कोने में उठा ले गए। तब तक लालटेन भी बुझ चुकी थी और घनघोर अंधेरा छा गया था।

बाबाजी कब लौटे, किस प्रकार और कहां सोये, हमें कुछ भी पता नहीं पर प्रात:काल उनके नेत्र आग्नेय हो रहे थे। (विभूति फीचर्स)

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