आस में पहले मिलन की हर नगर दीपक जलाए,
पर उजाले सब प्रखर तो हो न पाए।
कर दिए सब अश्रु अर्पित चिर-प्रतीक्षा में तुम्हारी,
वेदना के स्वर मुखर तो हो न पाए।
गीत जब से मन नयन से अश्रु बनके झर रहे हैं।
बस तभी से स्वप्न का शुभ जागरण पूरा हुआ है।।
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ये प्राण रहें न रहें लेकिन,
दुनिया में मृत्युंजय होना।
जीवन की समिधा में तप कर
आसान नहीं प्रत्यय होना।
रण की विभीषिका देखे भी,
फिर देखा हाल सुनाए भी,
इतना तटस्थ मन लेकर के
आसान नहीं संजय होना।
– यशोदा नैलवाल, दिल्ली