इल्तजा है कि,कर अफवाहों को नजर-अंदाज कभी ,
गुनहगार की तालिम में क्या रखा है,
बदसलूकी का आलम खत्म हो,
कसूरवार को ना सजा हो कभी।
इबादत तमाम की इस मन ने,
कोई एक इबादत उस रब की नुमाइश हो कभी।
खिलाफ उठे हजारों सवाल मेरे,
मन की चंचलता ना हो खत्म कभी।
सुना है ,गैर भी, हमारी गैर मौजूदगी पर, सुकून फरमाते हैं,
ए खुदा उन लोगों से ना हो पहचान कभी।
शामिल हो हमारी खुशियां हर दिल में,
ना परवाना, ना समा गमगीन हो कभी।
मेरे अल्फाजों को चुन–चुन समेटने से क्या होगा,
दो पल फुर्सत के निकालो कभी।
– प्रीति पारीक, जयपुर, राजस्थान